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भारतीय कानूनों से ऊपर उठ कर बैंक साबित करती है कि उनको नहीं परवाह कि भारतीय रिज़र्व बैंक की क्या गाइड लाइन है और विशेष कर निजी बेंक का और भी बुरा हाल है पहले लोन लो क्रेडिट कार्ड लो कम व्याज पर लो घर बैठे लो टेलीफोन पर इस तरह से फसा लेते है और बाद में कानूनों और गुंडों से फोन पर धमकी देते है जिस कानून के माध्यम से ग्राहक बनाते है उन्ही कानूनों को खुले आम तोड़ते है.
बाकया है एक आदमी लोन लेता है जिसकी ओकात १० हजार की है उसको दे दिया जाता है ५० हजार फिर उसके दुर्दिन शुरू हो जाते है पेमेंट लेने के लिए घर से लेकर ऑफिस तक चक्कर लगा कर कानून की धमकी दी जाती है और फिर एक मध्यम बर्ग का आदमी कर ही क्या सकता है आर बी आई की और सरकार के लचर कानून का सहारा लेकर आम आदमी को फसाया जाता है. और केंद्रीय बेंक देखती रहती है?
कहानी यही ख़तम नहीं होती जब ग्राहक पैसे को देना चाहता है तो बैंक उनको लेने से मना कर देता है यदि ले भी लिया तो दुगनी तिगनी रकम का ऑफर फिर दे दिया जाता है. आखिर एक बैंक ने दिया है तो दुसरे बैंक भी अपनी तिजोरी उसके लिए खोल देते है? क्यों कि एक बैंक फसा रहा है तो दुसरे क्यों पीछे रहे?
चेक को मोहरा बना कर बाउंड कर लिया और ग्राहक से कहा जाता है कि यदि चेक बोउन्स होता है तो ४२० का मुकदमा दर्ज हो जाएगा ग्राहक इतना पडा लिखा होता नहीं होता मान ही लेता है जेल जाना ही होगा मजबूर हो उसको वह कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ता है जिनकी कल्पना भी नहीं कर सकते?
जब एक ग्राहक का चेक बौंस होता है उनपर जाने कितनी पेनालिटी लगा दी जाती है. मजबूर हो वह पेमेंट रोक देता है फिछले दिनों मेरे एक दोस्त ने भी क्रेडिट कार्ड बनबा लिया हुआ भी वही विज्निस कर रहा था फ्लॉप हो गया तमाम कोशिश कर के पेमेंट निकाल रहा था चेक दिया बोउन्स हो गया फोन आया बेंक से और केश देने को कहा गया तो चेक मांगा तो कह दिया कि डाक से चेक आयगा इंतज़ार करता रहा पर चेक बापिस नहीं आया कुछ दिन बाद वही चेक विना बताये फिर डाल दिया फिर क्या था फिर कया नोटिस पे नोटिस आना शुरू हो जाते है यहाँ प्रशन उठता है कि जब चेक के बाउंस होने की रकम ले ली जाती है तो चेक ग्राहक को वापिस क्यों नहीं दिया जाता है आर बी आई के नियम के मुताविक जब बेंक उस रकम को प्राप्त कर चुकी है तो चेक ग्राहक को वापिस ना करना बेंक की लापरवाही मानी जानी चाहिए और बेंक उस चेक को बैंक कही और इस्तेमाल करती है तो बेंक पर ही केश होना चाहिए ना कि ग्राहक पर आज बेंक कोई भी फोन आता है कि बेंक से बोल रहा हूँ और केश लेने के लिए किसी भी बन्दे को भेज दिया जाता है रसीद भी दे दी जाती है क्या यह रसीद असली है या नकली यह तो बाद में पता चलता है ? जब पैसा हाथ से निकाल जाता है. फ़ोन पर सब कुछ हो जाता है.
एक एजेंट कितनी कम्पनी बदलते रहते है और पुरी डेटा सीट उनके पास होती है उसी को वह इस्तेमाल करते रहते है जब एक लोन शुरू होता है तो कुछ चेक और कुछ कागज साइन कराये जाते और कहा जाता है कि जब आपका लोन पूरा हो जाएगा तो आपके कागज वापिस कर दिए जायंगे पर कभी आज तक यह नहीं हो सका. कितने ही उदाहरण है बेंक उनको अपने पास रखे रहती है और ग्राहक को बापिस नहीं देती क्यों नियम क्या कहता है कि चेक ग्राहक के पास वापिस आने नहीं चाहिए यदि उन चेको का गलत इस्तेमाल होता है तो ग्राहक तो गया काम से ?
जिस लोन की बसूली हो जाती है उसको भी बेंक से नोटिस आते है कभी कोई एजेंट अबेध बसूली कर के ले जाता है तो कभी कोई कोरिओर वाला. कभी कोई एजेंट किसी बेंक का स्थाई कर्मचारी नहीं होता तो किसी ग्राहक की पुरी बेंकिंग स्टेटस को निजी हाथो में दे देती है वह आये गवाहे ग्राहक से अबेध बसूली करते नज़र आते है.
बेंको से आज भी किसी खाते की जानकारी हाशिल करना चाहे तो बह नहीं मिल सकती है क्यों कि गोपनीयता का कानून अमल में है पर आज जो निजी बेंक है उस गोपनीयता को डी एस ए को बाँट देती है और डी अस ए अपने एजें टो को तो गोपनीयता कहाँ रह गयी? दुसरी यह कानून का खुला मजाक है और आज आदमी के निजी गोपनीयता को भंग करना है साथ बेंको को अधिकार है बसूली के लिए कोर्ट के द्वार ख़त खताए पर निजी गुंडों को बसूली सौप कर भारतीय कानूनों का मजाक है बेंक और ग्राहक के बीच में सेटिलमेंट होने की प्रक्रिया होती है कोर्ट में भी वही होता पर बौंसर के माध्यम से बसूली करना बेंक के चरित्र पर शक पैदा करता है कि वह कानून को अपने हाथ में लेने से नहीं चुक रही है जो कोर्ट और आर बी आई के नियमो का खुला मज़ाक है इस पर अंकुश ना लगना देश में घातक है क्यों कि कानून का राज्य है और सब को अपना पक्ष रखने का अधिकार है दुसरी और बेंक के पास कागज़ होंते है उनमे हेराफेरी करने में उन्हें देर नहीं लगती है ऐसे में न्याय मिलना कठिन है जब ग्राहक के लिए कानून है तो बेंक के लिए भी तो होना चाहिए कि व्याज की दर और पेनालिटी रिजर्व बेंक के मुताबिक है कि नहीं ? साथ ही देश में हर किसी की बात सूनी जाए. कहा जाता है की जब चेक दिस ओनर हो जाता है तो चेक ग्राहक के घर नहीं भेजा जाना चाहिए? पर बिडम्बना है की बात उनकी सच लगती है और आम आदमी झूंठा करे कोई और भरे कोई? या फिर जब यही करना है तो साहूकार और बेंक में फर्क ही क्या है. आजादी के मतलब वही रचते है और खुद निर्णय भी करते है.
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