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तुलसी दास एक युग कवी!

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घर घर में विराजमान रामयण कह रही है की तुलसी एक महान कवी है उनके द्वारा रचित दोहे और चौपाई आज भी मन के अन्दर रमी है और कोई भी कथा विना इनके उधाहरण के पुरी नहीं होती?
” धीरज, धर्म, मित्र और नारी,
आपात काल परखिये चारी’
जब जब आदमी अपने आस पास देखता है तो यह दोहा खुद ब खुद अपनी महानता वखान कर देता है पर आज के भौतिक युग में इस चौपाई का मर्म कुछ हद तक कम होता नज़र आता है आये दिन दोस्त दोस्त की ह्त्या कर देता है पारवारिक कलह आत्महत्या पर मजबूर कर देती है पति पतिनी के रिश्ते कुछ हद तक तनाब पूर्ण हो चले है. दोस्ती के लिहाज से देखा जाये तो दोस्त दोस्त न रहा की कहाबत सार्थक सिद्ध हो जाती है या यु कहा जाये की दोस्ती होती ही है कुछ हाशिल करने के लिए चीज़ हासिल हुई और दोस्ती ख़तम.
आज बड़े बड़े लोग पैसा की भाषा बोलते दिख जाते है. रुतवा और शौहरत की चमक में सब कुछ फीका पड़ने लगा है और पैसा जहां होता है वहा हर काम सिद्ध हो ही जाते है ईमानदारी का पाठ वह ही पड़ते है जिनका अपना बजूद शून्य होता है या यह कहा जाए की विफल लोगो को उपदेशो का अम्बार मिल जाता है और सफल लोगो के हर एब छिप जाते है.
तुलसी की एक और चौपाई याद आ रही है ” ठोल, गवार, शुद्र, पशु और नारी यह सब है तारना के अधिकारी ”
यह उस युग की परिभाषा रही होगी पर जिसमे शुद्र और नारी के बारे में तुलसी ने लिखा जब की रामायण में सीता को सर्वोपरि स्थान दिया गया पर सोलह्बी सदी में जब रामायण लिखी तो यह भाव कहाँ से आ गए समझ में नहीं आया. मर्यादा की सभी भावनाओं से परिपूर्ण रामयाण लोगो का मार्ग दर्शन करती रही है तो सबको बराबरी का दर्ज़ा कहाँ दिया गया. इस परकरण से तो लगता है की नारी की दशा और शुद्र की उस समय ठीक नहीं रही या बर्ग भेद का चलन जाने में या अनजाने में उस समय ज्यादा था या उच्च बर्ग का दव दवा रहा होगा या तुलसी खुद ही उच्च बर्ग के रहे होंगे तो उनके विचार उस समय की घटनाओं से प्रेरित रहे है तुलसी दास के बारे में पहिले से ही यह कहानी परचलित है की वह अपनी पतिनी से अधिक प्रेम करते थे जिनके लिए वह साप को रस्सी समझ के चढ़ गए थे तभी उनकी पतिनी ने कहा था ” हाड मॉस की देह मम तामे इतनी प्रीत यदि होती श्री राम से तो ना होती भयभीत?” साहित्य समाज का दर्पण होता है तो उन्ही घटनाओं के नज़र में रख कर नारी के बारे में सोच पनपी हो जब की आज नारी की बजह से ही रामायण लोकप्रिय बनी और घर घर में पूजी गयी. आज भी कथाबाचक रामायण के दोहे सूना सूना कर ही अपनी आराधना पुरी करता है. और तुलसी के पौधे को महिलाये ही जल अर्पित करती है ?और इस तरह के आयोजनों में महिलाये ही अधिक होती है
शुद्र के बारे में तुलसी के बिचार सार्थक नहीं रहे क्यों की हर बर्न का चुनाव कर्मो के हिसाब से किया गया ना की जाती के हिसाब से फिर तरना का अर्थ के हिसाब से शुद्र रामायण को आदर्श ग्रन्थ कभी नहीं मान पाए?
कुछ भ्रान्तिया हो सकती है जो समय और देश काल से उनके अर्थ अलग निकल सकते है पर आज और आने वाले समय में शुद्र भी किसी बर्ग से कम नहीं है.
” हुह्ये बही जो राम रची रखा को करी सकी बढावा सका”
“रघुकुल रीत सदा चली आयी प्राण जाये पर बचन ना जाही”
बचन के पक्के कितने लोगो को मात मिलती देखी है और बर्बाद होते देखा है जब की इसके विपरीत कामयाव लोगो की हैसियत उनके गलत कारनामो से ही बनी है पर सब का मालिक एक जो गलत भी कराता है और सही भी और भगवान् को दोनों ही पियारे है गरीव भी और अमीर भी इसका सबसे बड़ा उधाहर्ण है की इन मंदिरों में अधिकाधिक भक्त अमीर होते जिन पर सब कुछ है पर मानसिक शांति नहीं है संतोष नहीं है जब कहा जाता है कण कण में भगवान् है हर इन्सान में भगवान् है तो मंदिरों और देवालयों की क्या जरुरत. इंसान को मदद करो भगवान् स्वम खुश हो जाएगा. भगवान् प्रेम के भूखे है उनकी आराधना तो जन कल्याण से पुरी हो होगी ना की मंदिर और मस्जिद से तो एक कदम बडाये.

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