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परिवर्तन ही जीवन है जब आदमी अपने दैनिक कार्यो से ऊब जाता है तो कुछ नए बाताबरण की खोज करना शुरू कर देता है . उसमे उसे शकुन मिलता है मुझे याद है आपातकाल के पहिले का समय जब जनता उस समय की विवसथा से ऊब रही थी और जय परकाश नारायण ने एक आन्दोलन चलाया उसमे छात्रो का रोल जयादा था और उन्हें जवर्दस्त समर्थन मिला उसका नतीजा यह हुया की तत्कालीन प्रधान मंत्री ने आपातकाल की घोषणा कर दी और सुधार बादी राजनेताओ को जेल में दाल दिया गया. और प्रेस की आजादी पर अंकुश लगा दिया गया अब लोग समाचारों के लिए बी बी सी और वोइस ऑफ़ अमेरिका पर डिपेंड हो गए.
सरकार ने भी इस आन्दोलन की काट में बीस सूत्री कार्यकर्म घोषित किया और इसी के अनुरूप युवा नेता संजय गांधी ने छेह सूत्री कार्यकर्म घोषित किया दोनों का मकसद एक ही था की जनता को राहत के द्वार दिखाए जाए और अगले चुनावो में जनता का वोट हाशिल किया जाए. प्रेस की बानी पर अंकुश लग चुका था इस बीच कई जियादिती की खबरे सामने आती रही और नौकर शाही ने अत्याचारी का रुख अपना लिया था. अत्याचारों का खमियाजा तत्कालीन सरकार को उठाना ही था सो हुआ.
जब आपात काल को उठाया गया तो सभी विपक्षी दल एक मंच पर आगये और बन गयी जनता पार्टी जिसमे किंग मेकर की भूमिका में थे जय परकाश नारायण जी कियो की आन्दोलन उन्ही की अगुआई ने चल रहा था सत्ता रूड़ तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव को हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था. जिसके विरोध में आन्दोलन में घी काम कर दिया था.
१९७७ में लोक सभा चुनाव हुए और इंदिरा गाँधी जी चुनाव हार गयी और पदासीन हो गयी जनता पार्टी की सरकार पर जो बात में कहना चाह रहा था वोह यह की इस पुरे घटना क्रम में जय प्रकाश जी को भुला दिया गया उनकी भूमिका यही खत्म हो गयी यानी सरकार बदली और उनका रोल ख़तम हो गया. उनके सर्वोदय आन्दोलन को विराम मिल गया यदि सत्ता परिवर्तन हुआ था तो उनके आन्दोलन की भूमिका और बदनी चाहिए थी पर ऐसा नहीं हुया भारत बर्ष में सत्ता किसी भी पार्टी की हो चलता है नौकरशाह आपातकाल में भी तत्कालीन सरकार को बदनाम इसी ने किया और बाद में जनता पार्टी की सरकार की नीव इसने ही खोद दी जो परिवर्तन की आशा आम आदमी ने की वह कहीं नज़र नहीं आयी इसका हश्र यह हुआ की जितने समय आपातकाल रहा उसी के लगभग कार्यकाल में जनता पार्टी में फुट पडी और तिनके के सामान विखर गयी. देश ने दो उप प्रधान मंत्री का दौर देखा? परिवर्तन की आंधी थम गयी?
कुछ समय सरकार चली और एक नासूर था वह फट पडा और इंदिरा गांधी के सुरक्षा घेरे में ही ह्त्या कर दी गयी यह समय था १९८४ जिस लेडी का लोहा अमरीका और रूस मानता रहा था उसकी ह्त्या कुछ सिर फिरे लोगो ने करदी. हताशा का माहौल में राजीव गांधी को प्रधान मंत्री बनाया गया चूँकि राजनीत में नया चहरा था और अपने लोगो पर आती विश्वास था सो सत्ता उनके हाथ आगयी लग रहा था की सरदारों की मांग पुरी हो जायेगी पर अटूट लोकतंत्र का विश्वास जागा और एक और परिवर्तन हुआ राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने.
कुछ समय जनता में फिर परिवर्तन की बात की और सत्ता बी पी सिंह के हाथ आगई उसके बाद नर सिंघाराव, देव गोड़ा, गुजराल और अटल विहारी और अब मनमोहन सिंह सत्ता पर काविज हुए.
परिवर्तन तो काफी वार जनता ने किये पर उनके हाथ सफलता की चाभी नहीं हाथ आ पाई कारण जब सत्ता परिवर्तन होने को होती है तो सत्ता के करीव वह ही लोग होते है जो पिछली सरकारों में सत्ता के पास थे या सत्ता सुख भोगा है चाहे वह किसी पार्टी के सदस्य रहे हो. परिवर्तन के बाद भी वही सत्ता सीन होते रहे है कितने ही नाम आज भी याद है और उन्होंने कितनी पार्टी बदल ली पर सत्ता के इर्द गिर्द ही रहे. यानी सत्ता परिवर्तन को हमेशा यही संज्ञा दी जाती रही की नई बोतल में पुराणी शराब. पर जिस जनता ने परिवर्तन किया वह बही के बही बनी रही.
यह देश चलता रहता है और देश को चलाते है नौकर शाह जो पहिले नेताओ से डरते थे अब मिल गए और मिल बाट कर खाने की नई नई तर्कीवे सुझाने लगे एक नेता सेवादार बन कर आया और पर हो गया मध्यस्थ सरकार और नौकर शाहों का. चुनावो में किया गया खर्चा मय सूद के बशुला जाने लगा परिवर्तन की आंधी बेकार गयी प्रेस की आज़ादी को भी इन लोगो ने खिलोना बना दिया मोटे मोटे विज्ञापन देकर सच की बाट लगा दी.
यही सोच कर अन्ना हजारे ने परिवर्तन का बीना उठाया और अपार जनसमर्थन ने उनकी लालसा भी बड़ा दी की सत्ता परिवर्तन होकर रहेगा. डर हे की फिर भी सत्ता उन्ही के इर्द गिर्द रहेगी जिनको हम आज क्लीन चिट देने से कतरा रहे है क्योंकी चुनाव वही लड़ सकते है जिन पर पैसा और ताकत होगी. सत्ता के स्वरुप को तो बदला जा सकता है पर उन लोगो को सत्ता से दूर नहीं रखा जा सकता है आज पुरी विधान सभा और लोक सभा में अपराधियों की गिनती तो होती है पर जनता फिर भी उन्ही को चुनती है क्यों की दव दवा उनको सत्ता के करीव तक ले आता है या सरकारों की मजबूरी होती है की उनके विना सरकार नहीं बन सकती है याद है एन सी पी जिसके प्रमुख कोंग्रेस को इसलिए छोड़ गए थे की इसकी अध्यक्ष विदेशी महिला है पर उसी महिला की अगुआई वाली सरकार में महत्व पूर्ण मंत्रालय लिए है यह सरकार की मजबूरी है या ए न सी पी की यह तो जग जाहिर है.
यही हाल अन्ना जी के परिवर्तन से महशुश होता है की परिवर्तन होगा भी जो कैसे क्या अन्ना जैसे ५४२ लोक सभा सदस्य २५० राज्य सभा सदस्य और हजारो की संख्या में विधान सभा सदस्य मिल पायंगे ? फिर सत्ता परिवर्तन के बाद नौकरशाही सुधार जायेगी सोचने योग्य प्रशन है .
किसी ने कहा जन लोक पाल विल कोई केप्सूल नहीं है जो बीमारी को जड़ से ख़तम कर देगा. सिद्धांत कुछ भी कहे सुधरना तो जनता को ही होगा
जो लाइन में ना लग शोर्ट कट से काम करवाने में ही भलाई समझती है इसके लिए चाहे कुछ भी त्याग करना पड़े.
अभी एक विज्ञापन देख रहा था की कोई भी प्रोडक्ट लो इसके बाद शिक्षा के लिए स्कूल खोलने में मदद करेगा इस प्रोडक्ट का विज्ञापन में अनुपम खेर नज़र आ रहे है एक सवाल उनसे की उनके इस खरीदारी से बने स्कूल क्या आम जनता के लिए है या प्राइवेट है. जव कदावर लोग इस तरह के विज्ञापन से जुड़ते है तो उन्हें यह जरुर जांच लेना चाहिए की स्कूल आम आदमी के लिए है या प्राइवेट संसथान है जो उन्ही कम्पनी की प्रोपर्टी है जो इसे बेच रहे है. काफी समय से यह देखा जा रहा है की तमाम बड़ी कम्पनी इस तरह से भावात्मक रिश्ते को जनम देती है और अंजाम कुछ और ही निकलता है यदि यह कम्पनी बच्चो की शिक्षा के लिए ही अपना प्रोडक्ट बेच रही है तो उन स्कुलो की भ्रमर की बीदियोग्राफ़ी भी कर के जनता को दिखाए. यदि सही तरह से पैसे का सदुपयोग हो तो ग्रामीण क्षेत्रो में बच्चे पेड़ के नीचे पड़ने को मजबूर ना हो. कई कम्पनी सेस के नाम पर शिक्षा के नाम पर अपने विल में कुछ परसेंट जोडती है पर फिर भी स्कुल वही के वही है. इससे तो यही साबित होता है की दावा खोखला है अन्ना की परिवर्तन यात्रा जरुर मुकाम तक पहुंचेगी पर फाईदा किसको मिलेगा समय पर निर्भर है “फिर भी सोचने में क्या बुराई है की हम होंगे कामयाब एक दिन”
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